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- हरिदास परंपरा
वृंदावन और हरिदास परंपरा
वृंदावन धाम सदियों से भक्तों की आस्था और प्रेम का केंद्र रहा है। श्रीकृष्ण और राधा की लीलाओं से पवित्र यह भूमि भक्तिकाल में अनेक संतों, कवियों और भक्तों की साधना-स्थली बनी। इन्हीं संतों में स्वामी हरिदास जी का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। वे निंबार्क संप्रदाय से जुड़े एक महान कवि, संत और संगीतकार थे, जिन्होंने हरिदास परंपरा या हरिदासी संप्रदाय की स्थापना की। वृंदावन उनकी साधना और उपासना का मुख्य केंद्र रहा, और आज भी उनकी परंपरा की गूंज वृंदावन की गलियों में सुनाई देती है।
हरिदास परंपरा और वृंदावन
हरिदास परंपरा में राधा-कृष्ण की आराधना सखी भाव से की जाती है। भक्त स्वयं को भगवान की सखी मानकर उनकी सेवा और भक्ति में लीन हो जाता है। यह उपासना शैली निकुंजोपासना कहलाती है। वृंदावन, जो राधा-कृष्ण की लीलाओं की धरती है, इस साधना के लिए सर्वोत्तम स्थान माना गया। यहीं पर स्वामी हरिदास जी ने निकुंज साधना करते हुए भक्तों के सामने भक्ति का अनूठा मार्ग प्रस्तुत किया।
ठा. बाँके बिहारी जी का प्राकट्य
वृंदावन और हरिदास परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण संबंध ठा. बाँके बिहारी जी के प्राकट्य से जुड़ा है। स्वामी हरिदास जी अपनी साधना में निरंतर राधा-कृष्ण के ध्यान में लीन रहते थे। उनकी भक्ति और प्रेम से प्रसन्न होकर युगल सरकार ने ठा. बाँके बिहारी जी के रूप में प्रकट होकर भक्तों को दर्शन दिए। आज वृंदावन का बाँके बिहारी मंदिर न केवल इस परंपरा का केंद्र है, बल्कि विश्वभर से लाखों भक्तों की आस्था का धाम भी है।
संगीत और वृंदावन की गूंज
स्वामी हरिदास जी को भक्ति संगीत का पितामह कहा जाता है। उनकी वाणी और रचनाएँ केवल भजन नहीं थीं, बल्कि कृष्णप्रेम से ओतप्रोत ऐसे गीत थे, जिन्हें सुनकर मनमोह हो उठता था। कहा जाता है कि उनके संगीत में ऐसी गहराई थी कि स्वयं अकबर जैसे सम्राट भी प्रभावित होकर उनके शिष्य तानसेन के साथ वृंदावन आए थे। आज भी वृंदावन की गलियों में कीर्तन, भजन और संकीर्तन की परंपरा उसी भक्ति-संगीत की धरोहर को आगे बढ़ाती है।
हरिदास परंपरा की जीवंतता
वृंदावन केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक स्थान नहीं, बल्कि जीवित परंपरा का प्रतीक है। हरिदास परंपरा यहाँ आज भी जीवंत है—भक्तजन हर वर्ष उत्सवों, झूलों और झांकी-लीलाओं के माध्यम से राधा-कृष्ण की आराधना करते हैं। सखी भाव से की जाने वाली सेवा, मंदिरों में गूंजते भजन और हरिदासी संतों की वाणी इस परंपरा को वर्तमान में भी उतना ही प्रासंगिक बनाए हुए है जितना स्वामी हरिदास जी के समय था।
निष्कर्ष
वृंदावन और हरिदास परंपरा का संबंध अविभाज्य है। जहाँ वृंदावन कृष्ण-राधा की दिव्य लीलाओं का धाम है, वहीं हरिदास परंपरा इस भूमि की आध्यात्मिकता को स्वर और शब्द देती है। आज भी जो भक्त वृंदावन की गलियों में प्रवेश करता है, उसे हरिदास जी की भक्ति, संगीत और प्रेम की वही अमर गूंज सुनाई देती है, जो सैकड़ों वर्ष पूर्व गूंजा करती थी।